परोपकार पुराण

"दद्दू आपके पास तो कहानियों का जख़ीरा, भण्डार है। कुछ सुनाइये न।" लाइट जाने के बाद बोर होते हुए उनके पोते मोनू ने कहा, "पहले पता होता बत्ती गुल हो जाएगी तो फ़ोन की बैटरी रिचार्ज करके रखता।"

"तुम ठहरे! आज की कंप्यूटर, मोबाइल, नेट से चलने वाली पीढ़ी के नौजवान!" दद्दू मंगलप्रसाद जी ने बीड़ी फूँकते हुए कहा, "हमारे ज़माने के क़िस्से क्या सुनोगे?"

"प्लीज़ दद्दू, सुना दीजिये न!" मोनू ने हाथ जोड़कर आग्रह किया।

"ठीक है बरखुरदार, तुम ज़ोर दे रहे हो तो सुनो, ये क़िस्सा सन 1984 का है। जिस साल प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी की हत्या हुई थी।" मंगलप्रसाद जी ने बीड़ी का अंतिम कस लगाया, और बीड़ी को फर्श पर फेंककर उसे अपने जूते से रगड़ दिया, "उन दिनों न तो ऑनलाइन टिकट बुकिंग होती थी और न ही आजकल की तरह आधार कार्ड या अन्य पहचान पत्र लेकर लोग सफ़र करते थे।"

"अच्छा जी! फिर तो पता ही नहीं चलता होता कि रेल टिकट का असली मालिक कौन है?" मोनू ने मुस्कुराकर कहा, "कोई भी टिकट पर लिखा नाम बोलकर अपना बता कर उस पर सफ़र कर सकता था।"

"हाँ, ऐसा भी होता था लेकिन उस वक़्त लोग ईमानदार थे और बड़ी ईमानदारी से सफ़र करते थे।" कहते हुए दद्दू ने डकार ली, "इस क़िस्से को मैंने नाम दिया है "परोपकार पुराण" ये घटना मेरे दोस्त के साथ घटी थी, मैं इस क़िस्से में उसका नाम इसलिए नहीं लूंगा कि ताकि उनके स्वाभिमान को धक्का न पहुंचे।"

"ओ.के. आई एग्री दद्दू!" मोनू ने सहमत होते हुए कहा।

"तो सुनो, क़िस्सा-ए-परोपकार पुराण!" और दद्दू ने 1984 की उस घटना को यूँ सुनना आरम्भ किया, "उस दिन मेरा एक दोस्त आराम से बैठे हुए अपना रेल का सफ़र तय कर रहा था। तभी धक्के खाता हुआ, एक आदमी हाँफता हुआ, हाथ जोड़े उनसे गुहार करने लगा।"

"भाई साहब पूरी ट्रेन में धक्के खाने के बावजूद मुझे कहीं भी सीट नहीं मिली। सारे डिब्बे खचाखच भरे हुए हैं। आपकी मेहरबानी होगी यदि आपके बगल में बैठने की थोड़ी-सी जगह मिल जाये।" याचना भरे स्वर में दुबले-पतले व्यक्ति ने कहा। पसीने और मारे गर्मी से उसका बुरा हाल था। जान पड़ता था यदि कुछ देर और खड़ा रहा तो वह आदमी अभी गिर पड़ेगा। सभी यात्री भेड़-बकरी की तरह भरे पड़े थे। हर कोई इस फ़िराक में था कि कहीं कुछ जगह मिले तो सीधे ढंग से खड़ा हुआ जा सके। "हाँ-हाँ, क्यों नहीं बैठ जाओ ... आजकल लोगों के भीतर से परोपकार की भावना ही उठ गई है।" जगह देने वाले व्यक्ति ने अन्य यात्रियों को सुनते हुए कहा। इसके पश्चात् उसने नेकी, परोपकार, धर्म-कर्म और संस्कार आदि विषयों पर लम्बा-चौड़ा व्याख्यान दे डाला। बेचारा दुबला-पतला व्यक्ति, जो परोपकार के बोझ तले दबा था, मज़बूरीवश बीच-बीच में 'हाँ-हूँ ...' 'हाँ-हूँ ...' करता रहा।

स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो टिकट निरीक्षक उसमे चढ़ गया। खचाखच भरे डिब्बे में वह एक-एक करके सबके टिकट जांचने लगा।

"टिकट निरीक्षक हमारे करीब आ रहा है। अत: मेरी पिछली ज़ेब से टिकट निकाल कर आप टिकट निरीक्षक को मेरा टिकट देखा दो। भीड़-भाड़ में मेरा हाथ ज़ेब तक नहीं पहुँच रहा है। अगर मैं ज़रा भी उठा या सीट से खिसका तो फिर जगह नहीं मिल पायेगी। तुम्हे पता ही है कितनी मुश्किल से एड्जेस्ट करके मैंने तुम्हे यहाँ बिठाया है," उसने दुबले-पतले व्यक्ति से कहा और अपना परोपकार पुराण जारी रखा। दुबले-पतले ने उसके आदेश का पालन किया। टिकट निरीक्षक जब करीब आया तो परोपकारी की जेब से निकला हुआ टिकट दुबले-पतले आदमी ने टिकट निरीक्षक को दिखा दिया।

"और आपका टिकट ..." दुबले-पतले व्यक्ति का टिकट देखने के पश्चात् टिकट निरीक्षक ने परोपकारी से पूछा।

"इन्होने दिखाया तो है!" परोपकारी ने दुबले-पतले की तरफ इशारा करके कहा।

"वो तो मेरा टिकट है।" दुबले-पतले ने तेज स्वर में कहा।

"क्या बात कर रहे हो? आपने ये टिकट मेरी जेब से निकाल कर इन्हें दिखाया था ना ..." परोपकारी हैरान था। उसे इस विश्वासघात पर ज़रा भी यकीन नहीं हो रहा था। उसे लगा शायद दुबला-पतला आदमी मज़ाक कर रहा है। अभी थोड़ी देर बाद दुबला-पतला आदमी अपना टिकट टिकट निरीक्षक को दिखा देगा।

"मैं क्यों आपकी जेब से टिकट निकालूँगा भाईसाहब, ये तो मेरी टिकट है ..." दुबले-पतले व्यक्ति ने बड़ी गम्भीरतापूर्वक कहा और परोपकारी को झूठा साबित कर दिया।

"एक तो तुम्हे बैठने को सीट दी और उसका तुमने ये बदला ..." बाकी शब्द परोपकारी के मुख में ही रह गए क्योंकि गलती उसी की थी एक अनजान आदमी को क्यों उसने जेब में हाथ डालने दिया?

"देखिये आपके पास टिकट नहीं है," टिकट निरीक्षक ने परोपकारी से कहा, "नीचे उतरिये। आपको जुर्माना भरना पड़ेगा।" और परोपकारी शर्मिदा होकर टिकट निरीक्षक के पीछे चल पड़ा।

"जय हो परोपकारी बाबा की।" भीड़ में से किसी ने व्यंग्य किया।

हंसी की एक लहर दौड़ गई। नीचे उतरते हुए वह दुबले-पतले व्यक्ति को घूरकर देख रहा था। जो अब उसी के टिकट की बदौलत उसी के स्थान पर बड़ी बेशर्मी से पैर पसारे बैठ गया था।

"अब तुम ही बताओ, मोनू बेटा! क्या नेकी का बदला यही होना चाहिए था, जो क़िस्सा-ए-परोपकार पुराण में घटा?" क़िस्सा सुनाने के बाद दददू ने अपने पोते से ही प्रश्न कर डाला।

"दद्दू जो हुआ ग़लत हुआ! कभी भी नेकी का बदला ऐसा नहीं होना चाहिए, पर आपके क़िस्से में ऐसा क्यों हुआ? ये बात क़िस्से के नामकरण में ही कहीं छिपी है! काश! आपका दोस्त, उस ज़रूरतमन्द की मदद करने के बाद, बार-बार उसे परोपकार का पाठ न सुनाता! शायद, वह आदमी आपके दोस्त की बातों से पक गया था, इसलिए उसने ग़लत काम किया।"

"मैं भी यही सोचता हूँ मोनू बेटा!" दद्दू ने कहा, "लेकिन उस दोस्त ने इसके बाद फिर कभी किसी की मदद नहीं की!"

तभी लाइट आ गई और पंखा चालू हो गया। दोनों दादा-पोते ने राहत की सांस ली। इसके बाद मोनू ने अपने मोबाइल फ़ोन पर पाबजी गेम खेलने में व्यस्त हो गया और दद्दू ने नई बीड़ी सुलगा ली।
 
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3 Comments

Miss Lipsa

29-Sep-2021 05:53 PM

Behtareen

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Swati chourasia

18-Sep-2021 07:54 PM

👌👌

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